The power of LOVE |
अलग—अलग शब्दों में सभी महापुरूषों ने प्रेम का बखान किया
है। वास्तव में प्रम मानव-जाति की बुनियाद है। प्रेम ऐसा
चुम्बक है, जो सबको अपनी ओर खींच लेता है। जिसके हृदय में प्रेम है, उसके लिए सब अपने हैं। भारतीय
संस्कृति में तो सारी पृथ्वी को एक कटुम्ब माना गया है—‘वसुधैव कुटुम्बकम्।‘
जो सबकों प्रेम करता है,
उससे बड़ा दौलतमंद कोई नहीं हो सकता। वह दूसरे के दिल
में ऊँची भावना पैदा कर देता है। आप जानते हैं, आदमी को भूमि से कितना मोह
होता है। कौरवों ने कहा था कि हम पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी ज़मीन नहीं
देगे; लेकिन विनोबा के प्रेम ने लाखों एकड़-भूमि
इकट्ठी करा दी। उन्होंने लोगों से यह नहीं कहा कि मुझे जमींन दो। नहीं दोगे
तो कानून से या ज़ोर-जबरजस्ती से छीनवा दूगॉँ । जिसका हृदय प्रेम से सराबोर हो, वह ऐसी भाषा कैसे बोल सकता
था! उन्होंने कहा, “मेरे प्यारे भाइयों, मैं तुम्हारे घर
पर आया हूँ। तुम्हारे पॉच बेटे हैं, छठा होता तो उसका भी लालन-पालन करते न! मुझे अपना छठा बेटा
मान लो और मेरा हिस्सा मुझे दे दो।”
विनोबा का यह प्रेम ही था, जिसने लोगों के
दिलों को मोम बना दिया। किसी-किसी ने तो अपनी सारी-की-सारी जमीन उनके चरणों में रख
दी। प्रेम के इतने बड़े चमत्कार की घटनाएँ हम किताबों में पढ़ते है, पर आज के युग में
विनोबा ने उसे सामने करके दिखा दिया।
जिसका हृदय निर्मल है,
उसी में ऐसे महान् प्रेम का निवास रहता है। वैसे तो
हम रोज़ प्रेम करते है; अपने बच्चों के, अपने सम्बन्धियों के, अपने मित्रों के प्रति प्रेम का व्यवहार करते है, लेकिन बारीकी से
देखा तो वह असली प्रेम नहीं है। हमारे प्रेम में कर्त्तव्य की थोड़ी-बहुत भावना
रहती है; पर साथ ही यह स्वार्थ भी कि हमारे बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे का सहारा बनेंगें।
सगे-सम्बन्धी मुसीबत में काम आवेंगे। अगर
हमें यह भरोसा हो जाय कि हमारा काम दूसरों के बिना भी चल जायेगा तो सच मानिए, हमारे प्रेम का बर्तन बहुत-कुछ खाली हो
जायेगा। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में छोटी-मोटी सुविधाएँ पैदा कर सकता है, पर दुनिया को बाँध नहीं सकता।
असली प्रेम तो वह है, जिसमें किसी प्रकार की बदले की भावना न हो। इतना ही नही, उसमें
विरोधी के लिए भी जगह हो। गर्मी से व्याकुल होकर हम जाने कितनी बार सूरज को कोसते
हैं, पर सूरज कभी हम पर नाराजी दिखाता है? हम
धरती को रोज़ पैरों से दबाते हुए चलते हैं, पर वह कभी
गुस्सा होती है? ज़रा गरम हवा आती है तो हम कहते हैं-‘’मार डाला
कमबख्त़ ने।’’ हमारी
गाली का हवा कभी बुरा मानती है? यदि गुस्सा होकर सूरज धूप और रोशनी न
दे, धरती अन्न न दे, हवा प्राण न
दे, तो सोचिए, हम लोगों की क्या हालत होगी!
संत फ्रांसिस ,जो प्राणि-मात्र को प्रेम करता था।
पर दुनिया उन्हं कितना ही भला-बुरा कहे, वे अपने धर्म को नहीं छोड़ सकते। उनके
प्रेम में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता, क्योंकि उनके
प्रेम के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है। वे प्रेम इसलिए देते हैं, कि
बिना दिये रह नहीं सकते। यही है वास्तविक प्रेम।
ऐसे प्रेम का वरदान बिरलों को ही मिलता है, पर जिन्हें मिलता है, वे अपने को कृतार्थ बना जाते हैं, दुनिया को धन्य कर जाते हैं।
0 comments:
Post a Comment