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Thursday 26 September 2013

प्रयत्न करना है तो फिर प्रार्थना क्यों?

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PRAYER TO GOD
प्रार्थना - PRAYER

रोज की प्रार्थना
विनोवा
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मायमृतं गमय।

हे प्रभो! मुझे असत्य में से सत्य में ले जा। अंधकार में से प्रकाश में ले जा। मृत्यु में से अमृत में ले जा। 

     इस मंत्र में हम कहां हैं, अर्थात् हमारा जीवन जीव-स्वरुप क्या है, और हमें कहां जाना है, अर्थात् हमारा शिव-स्वरुप क्या है, यह दिखाया है। हम असत्य में हैं, अंधकार में हैं, मृत्यु में हैं। यह  हमारा जीव-स्वरुप है। हमें सत्य की ओर जाना है, प्रकाश की ओर जाना है, अमरत्व को प्राप्त कर लेना है। यह हमारा शिव-स्वरुप है।

     दो बिंदु निश्चित हुए कि सुरेखा निश्चित हो जाती है। जीव और शिवये दो बिंदु निश्चित हुए कि परमार्थ मार्ग तैयार हो जाता है। मुकित के लिए परमार्थ-मार्ग नहीं है। कारण, उसका जीव-स्वरुप जाता रहा है। शिव-स्वरुप का एक ही बिंदु बाकि रह गया है इसलिए मार्ग पूरा हो गया। जड़ के लिए परमार्थ-मार्ग नहीं है। कारण, उसे शिव-स्वरुप का भान नहीं है। जीव-स्वरुप का एक ही बिंदु नजर के सामने है, इसलिए मार्ग आरंभ ही नहीं होता । मार्ग बीच वाले लोगों के लिए लिए है। बीच वाले लोग अर्थात् मार्ग आरंभ लिए मार्ग है और उन्ही के लिए इस मंत्र वाली प्रार्थना है।

     मुझे असत्य में से सत्य में ले जा,” ईश्वर से वह प्रार्थना करने के मानी है, मैं असत्य में से सत्य की ओर जाने का बराबर प्रयत्न करुंगा,’’ इस तरह की प्रतिज्ञा-सी करना। प्रयत्नवाद की प्रतिज्ञा के बिना प्रार्थना का कोई अर्थ ही नहीं रहता। यदि मैं प्रयत्न नहीं करता और चुप बैठ जाता हूं, अथवा विरुद्ध दिशा में जाता हूं,और जबान से मुझे असत्य में से सत्य में ले जा यह प्रार्थना किया करता हूं, तो इससे क्या मिलने का? नागपुर से कलकत्ते की ओर जाने वाली गाड़ी में बैठकर हम हे प्रभो! मुझे बम्बई ले जा की कितीन ही प्रार्थना करें, तो क्या फायदा होना है? असत्य से सत्य की ओर ले चलने की प्रार्थना करनी हो तो असत्य से सत्य की ओर जाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। प्रयत्नहीन प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं हो सकती। इसलिए ऐसी प्रार्थना करने में यह शामिल हे कि मैं अपना रुख असत्य से सत्य की ओर करुंगा और शक्ति भर सत्य की ओर जाने का भरपूर प्रयत्न करुंगा।

     प्रयत्न करना है तो फिर प्रार्थना क्यों? प्रयत्न करना है, इसीलिए तो प्रार्थना चाहिए। मैं प्रयत्न करनेवाला हूं। पर फल मेरी मुट्ठी में थोड़े ही है। फल तो ईश्वर की इच्छा पर अवलंबित है। मैं प्रयत्न करके भी कितना करूंगा? मेरी शक्ति कितनी अल्प है? ईश्वर की सहायता के बिना मैं अकेला क्या कर सकता हूं? मैं सत्य की ओर अपने कदम बढ़ाता रही

तो भी ईश्वर की कृपा के बिना मैं मंजिल पर नहीं पहुंच सकता। मैं रास्ता काटने का प्रयत्न तो करता हूं, पर अंत में मैं रास्ता काटूंगा कि बीच में मेरे पैर ही कट जाने वाले हैं, यह कौन कह सकता हैं? इसलिए अपने ही बलबूते मैं मंजिल पर पहुंच जाऊंगा, यह घमंड फ़िजूल है। काम का अधिकार मेरा है, पर फल ईश्वर के हाथ में है। इसलिए प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर की प्रार्थना आवश्यक है। प्रार्थना के संयोग से हमें बल मिलता है। यों कहो न कि अपने पास का सम्पूर्ण बल काम में लाकर बल  की ईश्वर से मांग करना, यही प्रार्थना का मतलब है।

     प्रार्थना में देववाद और प्रयत्नवाद का समन्वय है दैववाद  में पुरुषार्थ को अवकाश नहीं है, इससे वह बावला हैं, प्रयत्नवाद में निरहंकार वृत्ति नहीं है, इससे वह घमंडी है। फलत: दोनों ग्रहण नहीं किये जा सकते। किंतु दोनों को छोड़ा भी नहीं जा सकता। कारण, दैववाद में जो नम्रता है, वह जरुरी है। प्रयत्नवाद में जो पराक्रम है, वह भी आवश्यक है प्रार्थना इनका मेल साधती है मुक्तसंगोयनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:

* गीता में सात्विक कर्त्ता का यह जो लक्षण कहा गया है, उसमें प्रार्थना का रहस्य है। प्रार्थना मानी अहंकार रहित प्रयत्न।

*तुम्हारा किया तुम्हारे काम आयेगा और हमारा किया हमारे काम आयेगा। एक का काम दूसरे की मदद नहीं कर सकता। 


--हजरत मुहम्मद

साराशं,

मुझे असत्य में से सत्य में ले जा”, इस प्रार्थना का सम्पूर्ण अर्थ होगा किमैं असत्य में से सत्य की ओर जाने का, अहंकार छोड़कर, उत्साहपूर्वक सतत प्रयत्न करुंगा। यह अर्थ ध्यान में रखकर हमें रोज प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए

     हे प्रभो! तू मुझे असत्य में से सत्य में ले जा। अंधकार में से प्रकाश में ले जा। मुत्यु में से अमृत में ले जा।

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