रीडर, आपका "हिन्दी आर्टिकल" इस ब्लॉग पर Publish करना चाहते हे तो आप हमे भेज सकते हे।BUSINESS–INVESTMENT–NEWS–CAREER–MLM –SPIRITUAL–MOTIVATIONAL STORYकैसे भेजे आपका हिन्दी आर्टिक्ल।

ADDVERTISE WITH US

Thursday 26 September 2013

मैं तो घर आया हूँ मुझे मेहमान ना समझा जाये !!

- 2 comments
डॉ. हरगोविन्द  खुराना
         डॉ. हरगोविन्द  खुराना भारतीय मूल के scientist है, डॉ. हरगोविन्द  खुराना का जन्म सन् 1922 में मुल्तान के एक छोटे से कस्बे रायपुर में हुआ था, इनके पिता पटवारी थे, डॉ. खुराना childhood से ही कुशाग्र बुद्धि के मालिक थे, उनको पढ़ने कि बड़ी लगन थी, Indian government ने डॉ. खुराना कि लगन को देखते हुए उन्हें higher education कि प्राप्ति के लिए England भेजा।

England से वे doctorate कि उपाधि ले कर India वापस आये, पर दुर्भाग्यवश! India में  डॉ. हरगोविन्द को अपने योग्य कोई job नहीं मिल सकी और विवश होकर उन्हें विदेश वापस जाना पड़ा, अब डॉ. खुराना एक अमरीकी नागरिक है, उन्हें वहां कि नागरिकता प्राप्त है, डॉ. खुराना ने आनुवांशिकी कि field में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उनको सन् 1968 में औषधि एवम् शरीर क्रिया विज्ञान में Nobel price प्रदान किया गया। डॉ. हरगोविन्द खुराना America में बस जरुर गये थे पर वो अपनी मातृभूमि को भूले नहीं थे वो अक्सर अवकाश मिलने पर India अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने आते रहते थे।

एक बार कि बात है डॉ. खुराना India आये, Delhi में उनके स्वागत में एक मित्र ने भोज रखा, उनके लिए dining table पे पश्चिमी ढंग का भोजन लगाया गया, जब डॉ. खुराना भोजन ग्रहण करने के लिए पहुंचे और  वहां पश्चिमी ढंग का भोजन लगा देखा तो उन्हें बड़ी  हैरानी हुई और इसका कारण पूँछा, तो किसी सज्जन ने आगे बढ़कर बताया कि हमने सोचा कि आप बड़े लम्बे समय से America में रह रहे है तो अब तक आप western food के अभ्यस्त हो चुके होंगे इसलिए आपके लिए ये पश्चिमी भोजन कि व्यवस्था कि गई है।

इस बात को सुन कर डॉ. खुराना बोले- नहीं भाई ऐसा नहीं है, मैं अपने घर, अपने देश को भूला नहीं हूँ, मुझे पश्चिमी खाना नहीं चाहिए, मुझे तो बाजरे कि मोटी-मोटी रोटियां और सरसों का साग चाहिए, मैं अपने घर आया हूँ, मुझे मेहमान ना समझा जाये।

भोज में उपस्थित सभी लोग डॉ. हरगोविन्द खुराना कि इस सादगी और अपने पन पर मोहित हो गये।
[Continue reading...]

प्रयत्न करना है तो फिर प्रार्थना क्यों?

- 0 comments
PRAYER TO GOD
प्रार्थना - PRAYER

रोज की प्रार्थना
विनोवा
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मायमृतं गमय।

हे प्रभो! मुझे असत्य में से सत्य में ले जा। अंधकार में से प्रकाश में ले जा। मृत्यु में से अमृत में ले जा। 

     इस मंत्र में हम कहां हैं, अर्थात् हमारा जीवन जीव-स्वरुप क्या है, और हमें कहां जाना है, अर्थात् हमारा शिव-स्वरुप क्या है, यह दिखाया है। हम असत्य में हैं, अंधकार में हैं, मृत्यु में हैं। यह  हमारा जीव-स्वरुप है। हमें सत्य की ओर जाना है, प्रकाश की ओर जाना है, अमरत्व को प्राप्त कर लेना है। यह हमारा शिव-स्वरुप है।

     दो बिंदु निश्चित हुए कि सुरेखा निश्चित हो जाती है। जीव और शिवये दो बिंदु निश्चित हुए कि परमार्थ मार्ग तैयार हो जाता है। मुकित के लिए परमार्थ-मार्ग नहीं है। कारण, उसका जीव-स्वरुप जाता रहा है। शिव-स्वरुप का एक ही बिंदु बाकि रह गया है इसलिए मार्ग पूरा हो गया। जड़ के लिए परमार्थ-मार्ग नहीं है। कारण, उसे शिव-स्वरुप का भान नहीं है। जीव-स्वरुप का एक ही बिंदु नजर के सामने है, इसलिए मार्ग आरंभ ही नहीं होता । मार्ग बीच वाले लोगों के लिए लिए है। बीच वाले लोग अर्थात् मार्ग आरंभ लिए मार्ग है और उन्ही के लिए इस मंत्र वाली प्रार्थना है।

     मुझे असत्य में से सत्य में ले जा,” ईश्वर से वह प्रार्थना करने के मानी है, मैं असत्य में से सत्य की ओर जाने का बराबर प्रयत्न करुंगा,’’ इस तरह की प्रतिज्ञा-सी करना। प्रयत्नवाद की प्रतिज्ञा के बिना प्रार्थना का कोई अर्थ ही नहीं रहता। यदि मैं प्रयत्न नहीं करता और चुप बैठ जाता हूं, अथवा विरुद्ध दिशा में जाता हूं,और जबान से मुझे असत्य में से सत्य में ले जा यह प्रार्थना किया करता हूं, तो इससे क्या मिलने का? नागपुर से कलकत्ते की ओर जाने वाली गाड़ी में बैठकर हम हे प्रभो! मुझे बम्बई ले जा की कितीन ही प्रार्थना करें, तो क्या फायदा होना है? असत्य से सत्य की ओर ले चलने की प्रार्थना करनी हो तो असत्य से सत्य की ओर जाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। प्रयत्नहीन प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं हो सकती। इसलिए ऐसी प्रार्थना करने में यह शामिल हे कि मैं अपना रुख असत्य से सत्य की ओर करुंगा और शक्ति भर सत्य की ओर जाने का भरपूर प्रयत्न करुंगा।

     प्रयत्न करना है तो फिर प्रार्थना क्यों? प्रयत्न करना है, इसीलिए तो प्रार्थना चाहिए। मैं प्रयत्न करनेवाला हूं। पर फल मेरी मुट्ठी में थोड़े ही है। फल तो ईश्वर की इच्छा पर अवलंबित है। मैं प्रयत्न करके भी कितना करूंगा? मेरी शक्ति कितनी अल्प है? ईश्वर की सहायता के बिना मैं अकेला क्या कर सकता हूं? मैं सत्य की ओर अपने कदम बढ़ाता रही

तो भी ईश्वर की कृपा के बिना मैं मंजिल पर नहीं पहुंच सकता। मैं रास्ता काटने का प्रयत्न तो करता हूं, पर अंत में मैं रास्ता काटूंगा कि बीच में मेरे पैर ही कट जाने वाले हैं, यह कौन कह सकता हैं? इसलिए अपने ही बलबूते मैं मंजिल पर पहुंच जाऊंगा, यह घमंड फ़िजूल है। काम का अधिकार मेरा है, पर फल ईश्वर के हाथ में है। इसलिए प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर की प्रार्थना आवश्यक है। प्रार्थना के संयोग से हमें बल मिलता है। यों कहो न कि अपने पास का सम्पूर्ण बल काम में लाकर बल  की ईश्वर से मांग करना, यही प्रार्थना का मतलब है।

     प्रार्थना में देववाद और प्रयत्नवाद का समन्वय है दैववाद  में पुरुषार्थ को अवकाश नहीं है, इससे वह बावला हैं, प्रयत्नवाद में निरहंकार वृत्ति नहीं है, इससे वह घमंडी है। फलत: दोनों ग्रहण नहीं किये जा सकते। किंतु दोनों को छोड़ा भी नहीं जा सकता। कारण, दैववाद में जो नम्रता है, वह जरुरी है। प्रयत्नवाद में जो पराक्रम है, वह भी आवश्यक है प्रार्थना इनका मेल साधती है मुक्तसंगोयनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:

* गीता में सात्विक कर्त्ता का यह जो लक्षण कहा गया है, उसमें प्रार्थना का रहस्य है। प्रार्थना मानी अहंकार रहित प्रयत्न।

*तुम्हारा किया तुम्हारे काम आयेगा और हमारा किया हमारे काम आयेगा। एक का काम दूसरे की मदद नहीं कर सकता। 


--हजरत मुहम्मद

साराशं,

मुझे असत्य में से सत्य में ले जा”, इस प्रार्थना का सम्पूर्ण अर्थ होगा किमैं असत्य में से सत्य की ओर जाने का, अहंकार छोड़कर, उत्साहपूर्वक सतत प्रयत्न करुंगा। यह अर्थ ध्यान में रखकर हमें रोज प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए

     हे प्रभो! तू मुझे असत्य में से सत्य में ले जा। अंधकार में से प्रकाश में ले जा। मुत्यु में से अमृत में ले जा।
[Continue reading...]

Friday 20 September 2013

नीति के नियम - In Hindi - by - Gandhiji

- 0 comments
Neeti-ke-niyam
     अमुक काम अच्छा है या बुरा, इस बारे में हम सदा मत प्रकट किया करते हैं। कुछ कामों से हमें संतोष मिलता है और कुछ हमारी अप्रसन्नता के कारण होते हैं। कार्य-विशेष के भले या बुरे होने का आधार इस बात पर नहीं होता कि वह काम हमारे लिए लाभजनक है या हानिकारक, पर उसकी तुलना करने में हम जुदे ही पैमाने से काम लिया करते हैं। हमारे मन में कुछ विचार रम रहे होते हैं, उन्हीं के आधार पर हम दूसरे आदमियों के कामों की परीक्षा किया करते हैं। एक आदमी ने दूसरे आदमी का कोई नुक़सान किया हो

उसका असर अपने ऊपर हो या न हो, उस काम को हम खराब मानते हैं। कितनी ही बार नुकसान करनेवाले की ओर हमारी हमदर्दी हो तो उसका काम बुरा है, वह कहते हमें तनिक भी हिचक नहीं होती। यह भी हो सकता है कि कितनी ही बार हमारे राय गलत ठहरे। मनुष्यों का हेतु हम सदा देख नहीं सकते, इससे हम परीक्षा किया करते हैं। फिर भी हेतु के प्रमाण में काम की परीक्षा करने में बाधा नहीं होती। कुछ बुरे कामों में हमें लाभ होता है, फिर भी हम मन में तो समझते ही हैं कि वे बुरे हैं।

     अत: यह सिद्ध हुआ कि किसी काम के भले या बुरे होने का आधार मनुष्य का स्वार्थ नहीं होता। उसकी इच्छाएं भी इसका आधार नहीं होतीं। नीति और मन की वृत्ति के बीच सदा सम्बन्ध देखने में नहीं आता। बच्चे पर ममता होने के कारण हम उसे कोई खास चीज देखा चाहते हैं कि उसे देने में अनीति है। स्नेह दिखाना बेशक अच्छी बात है, पर नीति-विचार के द्वारा उसकी हद न बांध दी गई हो तो वह विषरुप हो जाता है।

     हम यह भी देखते हैं कि नीति के नियम अचल हैं। मत बदला करते हैं, पर नीति नहीं बदलती। हमारी आंखें खुली हों तो हमें सूरज दिखाई देता है, बन्द हों तो नहीं दिखाई देता। इसमें हमारी निगाह में हेर-फेर हुआ, न कि सूरज के होने में। नीति के नियमों के बारे में भी यही समझना चाहिए। हो सकता है कि अज्ञान दशा में हम नीति को न समझ सकें। जब हमारा ज्ञानचक्षु खुल जाता है तब हमें समझने में कठिनाई नहीं पड़ती। मनुष्य सदा भले की ओर ही निगाह रखे, ऐसा क्वचित् ही होता है। इससे अक्सर स्वार्थ की दृष्टि से देखकर अनीति को नीति कहता है।

ऐसा समय तो अभी आने को है जब मनुष्य स्वार्थ का विचार त्याग कर नीति-विचार की ओर ही ध्यान देगा। नीति की शिक्षा अभी बिलकुल बचपन की अवस्था में है। बेकन और डार्विन के पहले शास्त्र की जो स्थिति थी वही आज नीति की है। लोग सच्चा क्या है, उसे देखने को उत्सुक थे। नीति के विषय को समझने के बदले वे पृथ्वी आदि के नियमों की खोज में लगे हुए थे। ऐसे कितने विद्वान आपको दिखाई दिये हैं, जिन्होंने लगन के साथ कष्ट सहकर पिछले वहमों को एक ओर रखकर नीति की खोज में जिन्दगी बिताई हो? जब प्राकृतिक रहस्यों की खोज करने में तल्लीन रहें तब हम यह मानें कि अब नीति-विचार के विषय के विचार इकट्ठे किये जा सकते हैं।

शास्त्र या विज्ञान के विचारों के विषय में आज भी विद्वानों में जितना मतभेद रहता है उतना नीति के नियमों के विषय में होना मुमकिन नहीं। फिर भी हो सकता है कि कुछ अरसे तक हम नीति के नियमों के विषय में एक राय न रख सकें, पर उसका अर्थ यह नहीं है कि हम खरे-खोटे का भेद नहीं समझ सकते।

हमने देख लिया कि मनुष्यों की इच्छा से अलग नीति का कोई नियम है, जिसे हम नीति का नियम कह सकते हैं। जब राजनैतिक विषयों में हमें नियम-कानून दरकार है तब क्या हमें नीति के नियमों का प्रयोजन नहीं है, भले ही वे नियम मनुष्य-लिखित न हों? वह मनुष्य-लिखित होना भी न चाहिए। और अगर हम नीति-नियमों को अस्तित्व स्वीकार करें तो जैसे हमें राजनैतिक नियमों के अधीन रहना पड़ता है, वैसे ही नीति के नियमों के अधीन रहना कर्तव्य है। नीति के नियम राजनैतिक और व्यवसायिक नियमों से अलग तथा उत्तम हैं। मुझसे या दुसरे किसी से यह नहीं बन सकता कि व्यवसायिक नियमों के अनुसार न चलकर मैं गरीब बना हूं तो क्या हुआ?

     यों नीति के नियम और दुनियादारी के नियम के बीच भारी भेद है, क्योंकि नीति का वास हमारे हृदय में है। अनीति का आचरण करनेवाला मनुष्य भी अपनी अनीति कबूल करेगाझूठा सच्चा कभी नहीं हो सकता। और जहां जन-मानस बहुत दुष्ट हो, वहां भी लोग नीति के नियमों का पालन न करते हों तो भी पालन को ढोंग करेंगे, अर्थात् नीति का पालन कर्त्तव्य है, यह बात वैसे आदमियों को भी कबूल करनी पड़ती है। ऐसी नीति की महिमा है। इस प्रकार की नीति रीति-किरवाज जहां तक नीति के नियम का अनुसरण करता दिखाई दे, वहीं तक नीतिमान पुरुष को वह बंधनकारक है।

     ऐसा नीति का नियम कहां से आया? कोई राजा, बादशाह उसे गढ़ता नहीं, क्योंकि  भिन्न-भिन्न राज्यों में जुदा-जुदा कानून-कायदे देखने में आते हैं। सुकरात के जमाने में, जिस नीति का अनुसरण वह करता था, बहुत-से लोग उसके विरुद्ध थे, फिर भी सारी दुनिया क़बूल करती है कि जो नीति उसकी  थी वह सदा रही है और रहेगी। अंग्रेजी कवि राबर्ट ब्राउनिंग कह गया है कि कभी कोई शैतान दुनिया में द्वेष और झूठ की दुहाई फिरा दे तो भी न्याय, भलाई और सत्य ईश्वरीय ही रहेंगे। इस पर से यह कह सकते हैं कि नीति के नियम सर्वोपरि और ईश्वरीय हैं।

     ऐसे नियम का भंग कोई प्रजा या मनुष्य अंत तक नहीं कर सकता। कहा है कि जैसे भयानक बवंडर अंत में उड़ जाता है, वैसे ही अनीतिमान पुरुष का भी नाश होता है। असीरिया और बेबीलोन में अनीति का घड़ा भरा नहीं कि तत्काल फूट गया। रोग ने जब अनीति का रास्ता पकड़ा तब उसके महान पुरुष का बचाव न कर सके। ग्रीस की जनता बुद्धिमान थी, पर उसकी बुद्धिमानी अनीति को टिका न सकी। फ्रांस में जब विप्लव हुआ, वह भी अनीति के हीं विरोध में। वैसे ही अमेरिका में भला वेंडल फिलिप्स कहता है कि अनीति राजगद्दी पर बैठी हो तो भी टिकने की नहीं। नीति के इस अद्भूत नियम का जो मनुष्य पालन करता है वह ऊपर उठता है; जो कुटुम्ब-पालन करता है वह बना रह सकता है और जिस समाज में उसका पालन होता है, उसकी वृद्धि होती है; जो प्रजा इस उत्तम नियम का पालन करती है वह सुख, स्वतंत्रता और शांति को भोगती है।

ऊपर के विषय से मेल खाने वाली एक कविता है:

मन तुहिं तुहिं बोले रे, आसुपना जेवु तल तारुं;
अचानक उड़ी जाशे रे, जेम देवतामां दारुं।
झाकल जलपलमा वलीजाशे, जेम कागलने पाणी;
काया वाड़ी तारी एम करमाशे, थइ जाशे धूलधाणी।
माछलथी पस्ताशेरे, मिथ्या करी मारुं मारुं।
काचनो कुंपो काया तारी, वणसतां न लागे वार।
जीव काया ने सगाई केटली, मूकी चाले बनमोझार
फोकट पुल्यां फरवुंरे, आचिन्तु थाशे अधारुं।
जायुं ते तो सर्वें जवानुं, अगरवानो उधारो;
देव, गांधर्व राक्षसने माणस सउने मरणानो वारो।
आशानो महेल उंचोरे, नीचुंआ काचुंकारभारुं।
चंचल चित्तमां चेती ने चालो, भालो हरिरुं नाम,
परमारथ जे हाथे ते साथे करो रहेवानो विश्राम।
धीरो धराधरथीरे कोई न थी रहेनारुं....मन०

भावार्थ

मन, यह जो तू अपना-अपना कहता है तेरा सपने के जैसा है अचानक इस तरह उजड़ जायगा कागज पर पानी के समान। उसी प्रकार तेरी कायारुप बाड़ी सूखकर नष्ट हो जायेगी। पीछे पछतायगा। तू व्यर्थ मेरा मेरा करता है। तेरी काया शीशे की कुप्पी जैसी है, उसके नष्ट होते देर न लगेगी। जीव और देह का नाता ही कितना? एक दिन अंधकार हो जायगा। जो जन्मा है वह सभी जाने वाला है, इसमें से बचना कठिन है।

देवता, गंधर्व, राक्षस, मनुष्य सबके मरण का दिन नियत है। आशा का महल ऊंचा और इस दुनिया का कच्चा कारोबार नीचा है। तू चंचल चित्त में चेतकर चल और भगवान का नाम ले। जो परमार्थ कमा लेगा वही साथ जायगा। ऐसा ठिकाना पाने का उपाय कर, जहां तेरी आत्मा को विश्राम मिले।

धीरो (भगत) कहता है कि इस पृथ्वी के ऊपर कोई नहीं रहने वाला है।

[Continue reading...]
 
Copyright © . The Hindi Article - Posts · Comments