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Neeti-ke-niyam |
अमुक
काम अच्छा है या बुरा, इस बारे में हम सदा मत
प्रकट किया करते हैं। कुछ कामों से हमें संतोष मिलता है और कुछ हमारी अप्रसन्नता
के कारण होते हैं। कार्य-विशेष के भले या बुरे होने का आधार इस बात पर नहीं होता
कि वह काम हमारे लिए लाभजनक है या हानिकारक, पर उसकी तुलना करने में हम जुदे ही पैमाने से काम
लिया करते हैं। हमारे मन में कुछ विचार रम रहे होते हैं, उन्हीं के आधार पर हम
दूसरे आदमियों के कामों की परीक्षा किया करते हैं। एक आदमी ने दूसरे आदमी का कोई
नुक़सान किया हो
उसका असर अपने ऊपर हो या न हो, उस काम को हम खराब मानते हैं। कितनी ही बार नुकसान
करनेवाले की ओर हमारी हमदर्दी हो तो उसका काम बुरा है, वह कहते हमें तनिक भी हिचक नहीं होती। यह भी हो सकता
है कि कितनी ही बार हमारे राय गलत ठहरे। मनुष्यों का हेतु हम सदा देख नहीं सकते, इससे हम परीक्षा किया
करते हैं। फिर भी हेतु के प्रमाण में काम की परीक्षा करने में बाधा नहीं होती। कुछ
बुरे कामों में हमें लाभ होता है, फिर भी हम मन में तो समझते ही हैं कि वे बुरे हैं।
अत:
यह सिद्ध हुआ कि किसी काम के भले या बुरे होने का आधार मनुष्य का स्वार्थ नहीं
होता। उसकी इच्छाएं भी इसका आधार नहीं होतीं। नीति और मन की वृत्ति के बीच
सदा सम्बन्ध देखने में नहीं आता। बच्चे पर ममता होने के कारण हम उसे कोई खास चीज
देखा चाहते हैं कि उसे देने में अनीति है। स्नेह दिखाना बेशक अच्छी बात है, पर नीति-विचार के
द्वारा उसकी हद न बांध दी गई हो तो वह विषरुप हो जाता है।
हम
यह भी देखते हैं कि नीति के नियम अचल हैं। मत बदला करते हैं, पर नीति नहीं बदलती।
हमारी आंखें खुली हों तो हमें सूरज दिखाई देता है, बन्द हों तो नहीं दिखाई देता। इसमें हमारी निगाह में
हेर-फेर हुआ, न कि सूरज के होने में। नीति के नियमों के बारे में
भी यही समझना चाहिए। हो सकता है कि अज्ञान दशा में हम नीति को न समझ सकें। जब
हमारा ज्ञानचक्षु खुल जाता है तब हमें समझने में कठिनाई नहीं पड़ती। मनुष्य सदा
भले की ओर ही निगाह रखे, ऐसा क्वचित् ही होता है। इससे अक्सर स्वार्थ की
दृष्टि से देखकर अनीति को नीति कहता है।
ऐसा समय तो अभी आने को है जब मनुष्य स्वार्थ का
विचार त्याग कर नीति-विचार की ओर ही ध्यान देगा। नीति की शिक्षा अभी बिलकुल बचपन की अवस्था में है।
बेकन और डार्विन के पहले शास्त्र की जो स्थिति थी वही आज नीति की है। लोग सच्चा
क्या है, उसे
देखने को उत्सुक थे। नीति के विषय को समझने के बदले वे पृथ्वी आदि के नियमों की
खोज में लगे हुए थे। ऐसे कितने विद्वान आपको दिखाई दिये हैं, जिन्होंने लगन के साथ
कष्ट सहकर पिछले वहमों को एक ओर रखकर नीति की खोज में जिन्दगी बिताई हो? जब प्राकृतिक रहस्यों
की खोज करने में तल्लीन रहें तब हम यह मानें कि अब नीति-विचार के विषय के विचार
इकट्ठे किये जा सकते हैं।
शास्त्र या विज्ञान के विचारों के विषय में आज भी
विद्वानों में जितना मतभेद रहता है उतना नीति के नियमों के विषय में होना मुमकिन
नहीं। फिर भी हो सकता है कि कुछ अरसे तक हम नीति के नियमों के विषय में एक राय न
रख सकें, पर
उसका अर्थ यह नहीं है कि हम खरे-खोटे का भेद नहीं समझ सकते।
हमने देख लिया कि मनुष्यों की इच्छा से अलग
नीति का कोई नियम है, जिसे हम ‘नीति का नियम’ कह सकते हैं। जब राजनैतिक विषयों में हमें नियम-कानून दरकार है
तब क्या हमें नीति के नियमों का प्रयोजन नहीं है, भले ही वे नियम मनुष्य-लिखित न हों? वह मनुष्य-लिखित होना
भी न चाहिए। और अगर हम नीति-नियमों को अस्तित्व स्वीकार करें तो जैसे हमें
राजनैतिक नियमों के अधीन रहना पड़ता है, वैसे ही नीति के नियमों के अधीन रहना कर्तव्य है।
नीति के नियम राजनैतिक और व्यवसायिक नियमों से अलग तथा उत्तम हैं। मुझसे या दुसरे
किसी से यह नहीं बन सकता कि व्यवसायिक नियमों के अनुसार न चलकर मैं गरीब बना हूं
तो क्या हुआ?
यों
नीति के नियम और दुनियादारी के नियम के बीच भारी भेद है, क्योंकि नीति का वास हमारे हृदय में है। अनीति का
आचरण करनेवाला मनुष्य भी अपनी अनीति कबूल करेगा—झूठा सच्चा कभी नहीं हो सकता। और जहां जन-मानस बहुत
दुष्ट हो, वहां
भी लोग नीति के नियमों का पालन न करते हों तो भी पालन को ढोंग करेंगे, अर्थात् नीति का पालन
कर्त्तव्य है, यह बात वैसे आदमियों को भी कबूल करनी पड़ती है। ऐसी
नीति की महिमा है। इस प्रकार की नीति रीति-किरवाज जहां तक नीति के नियम का अनुसरण
करता दिखाई दे, वहीं तक नीतिमान पुरुष को वह बंधनकारक है।
ऐसा
नीति का नियम कहां से आया? कोई राजा, बादशाह उसे गढ़ता
नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न राज्यों में जुदा-जुदा कानून-कायदे
देखने में आते हैं। सुकरात के जमाने में, जिस नीति का अनुसरण वह करता था, बहुत-से लोग उसके
विरुद्ध थे, फिर
भी सारी दुनिया क़बूल करती है कि जो नीति उसकी
थी वह सदा रही है और रहेगी। अंग्रेजी कवि
राबर्ट ब्राउनिंग कह गया है कि कभी कोई शैतान दुनिया में द्वेष और झूठ
की दुहाई फिरा दे तो भी न्याय, भलाई और सत्य ईश्वरीय ही रहेंगे। इस पर से यह कह
सकते हैं कि नीति के नियम सर्वोपरि और ईश्वरीय हैं।
ऐसे
नियम का भंग कोई प्रजा या मनुष्य अंत तक नहीं कर सकता। कहा है कि जैसे
भयानक बवंडर अंत में उड़ जाता है, वैसे ही अनीतिमान पुरुष का भी नाश होता है। असीरिया
और बेबीलोन में अनीति का घड़ा भरा नहीं कि तत्काल फूट गया। रोग ने जब अनीति का
रास्ता पकड़ा तब उसके महान पुरुष का बचाव न कर सके। ग्रीस की जनता बुद्धिमान थी, पर उसकी बुद्धिमानी
अनीति को टिका न सकी। फ्रांस में जब विप्लव हुआ, वह भी अनीति के हीं विरोध में। वैसे ही अमेरिका में
भला वेंडल फिलिप्स कहता है कि अनीति राजगद्दी पर बैठी हो तो भी टिकने की नहीं।
नीति के इस अद्भूत नियम का जो मनुष्य पालन करता है वह ऊपर उठता है; जो कुटुम्ब-पालन करता
है वह बना रह सकता है और जिस समाज में उसका पालन होता है, उसकी वृद्धि होती है; जो प्रजा इस उत्तम
नियम का पालन करती है वह सुख, स्वतंत्रता और शांति को भोगती है।
ऊपर के विषय से मेल खाने वाली एक कविता है:
मन तुहिं तुहिं बोले रे, आसुपना जेवु तल तारुं;
अचानक उड़ी जाशे रे, जेम देवतामां दारुं।
झाकल जलपलमा वलीजाशे, जेम कागलने पाणी;
काया वाड़ी तारी एम करमाशे, थइ जाशे धूलधाणी।
माछलथी पस्ताशेरे, मिथ्या करी मारुं मारुं।
काचनो कुंपो काया तारी, वणसतां न लागे वार।
जीव काया ने सगाई केटली, मूकी चाले बनमोझार
फोकट पुल्यां फरवुंरे, आचिन्तु थाशे अधारुं।
जायुं ते तो सर्वें जवानुं, अगरवानो उधारो;
देव, गांधर्व राक्षसने माणस सउने मरणानो वारो।
आशानो महेल उंचोरे, नीचुंआ काचुंकारभारुं।
चंचल चित्तमां चेती ने चालो, भालो हरिरुं नाम,
परमारथ जे हाथे ते साथे करो रहेवानो विश्राम।
धीरो धराधरथीरे कोई न थी रहेनारुं....मन०
भावार्थ—
मन, यह जो तू अपना-अपना कहता है तेरा सपने के जैसा
है अचानक इस तरह उजड़ जायगा कागज पर पानी के समान। उसी प्रकार तेरी कायारुप बाड़ी सूखकर नष्ट हो
जायेगी। पीछे पछतायगा। तू व्यर्थ ‘मेरा’ ‘मेरा’ करता है। तेरी काया शीशे की कुप्पी जैसी है, उसके नष्ट होते देर न
लगेगी। जीव और देह का नाता ही कितना? एक दिन अंधकार हो जायगा। जो जन्मा है वह सभी जाने
वाला है, इसमें
से बचना कठिन है।
देवता, गंधर्व, राक्षस, मनुष्य सबके मरण का दिन नियत है। आशा का महल ऊंचा और इस दुनिया का कच्चा कारोबार
नीचा है। तू चंचल चित्त में चेतकर चल और भगवान का नाम ले। जो परमार्थ कमा लेगा वही
साथ जायगा। ऐसा ठिकाना पाने का उपाय कर, जहां तेरी आत्मा को विश्राम मिले।
‘धीरो’ (भगत) कहता है कि इस पृथ्वी के ऊपर कोई नहीं
रहने वाला है।